डरती थी मिटटी जो, फिर चाक चड़ने से;
तपने से, फिर भीगने से, टूटने से, पिघलने से।
तू आंचों में सौ पका के।
फिर चाक मुझको चढ़ा के।
तू चोट करता है।
फिर उसको भरता है।
देता मुझको 'आकार' है...
तू ताप दे कि, पिघल मैं सकूँ जिससे।
इस आग पर तेरी, चल मै सकूँ हँस के।
बंधन तू कुछ तोड़ता है।
धागे तू यूँ जोड़ता है...
तू ही मिटाता है।
फिर से बनाता है।
देता मुझको 'आकार' है...
तपने से, फिर भीगने से, टूटने से, पिघलने से।
तू आंचों में सौ पका के।
फिर चाक मुझको चढ़ा के।
तू चोट करता है।
फिर उसको भरता है।
देता मुझको 'आकार' है...
तू ताप दे कि, पिघल मैं सकूँ जिससे।
इस आग पर तेरी, चल मै सकूँ हँस के।
बंधन तू कुछ तोड़ता है।
धागे तू यूँ जोड़ता है...
तू ही मिटाता है।
फिर से बनाता है।
देता मुझको 'आकार' है...
how do u manage to write so beautifully every single time??
ReplyDeleteYour inner beauty shines through your poems...hat-off to those nobel hearts who must have contributed to give you Aakar..and you know what.. pain is an essential part of life that needs to be accepted whole heartedly..and that's what leads to happiness..you appear to have learn this truth very early in life.. it's going to be a smooth flow always.. touch wood!
ReplyDelete@ Mayz The potter there inspires...
ReplyDeleteTujhe aakar dene wala tujhe parakhta hai,
ReplyDeletePhir wo tere sapno ko sakaar karta hai...
good one..faadu..:)
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