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Monday, July 5, 2010

पिंजरा.

'वह' कैद था. पर वह दुखी नहीं था। जिसने आकाश का विस्तार कभी न देखा हो, वह अपनों सीमित और छोटी सी दुनिया में ही 'सुख' ढूँढ लेता है. पर सुख और तृप्ति भिन्न हुआ करते हैं। वह लोहे के उस संरक्षण में 'सुख' तो ढूँढ लिया करता था, पर 'तृप्ति' से मीलों दूर था। क्योंकि 'तृप्ति' के लिए 'खोज' ज़रूरी होती है। भाग्यशाली होते हैं वो लोग जिन्हें इस खोज का अवसर प्राप्त होता है। उस शाम पिंजरे में कैद उस हरित पंची को भी ये अवसर मिला उस शाम...

मेरे लिए वो लोहे का पिंजरा 'घर' सा बन गया था। बहुत वक़्त से खुद को वहीँ और उसी अवस्था में देखा था। मेरी आवश्यकताएं तो पूरी हो ही जाती थी उस पिंजरे में. पर कुछ खाली था मुझमे कुछ चुप कुछ जमा सा

'वह' आया। 'वह' पिंजरे में कैद मुझ हरित पंछी को देखा करता। मानो मेरे पंखों में बसी उस चिन्मयी शक्ति से परिचित हो वह शक्ति, जिससे मेरी आत्मा स्वयं अनभिज्ञ थी। कुछ था उन दो नेत्रों में। कुछ बारिश से पहले आकाश में घुले मेघों सा अस्पष्ट। कुछ सागर कि तेज़ उफनती लहरों के बीच खड़े बड़े पत्थर सा स्थिर और दृड़। कुछ कहा... कुछ अनकहा....
कुछ...
जिसने मुझे पहली बार एहसास दिलाया कि मै खुबसूरत हूँ कि मै ख़ास हूँ कि मै सपने देख सकता हूँ कि मै उड़ सकता हूँ.....

'उसने' आज तक मुझसे कुछ नहीं कहा। बस मेरे पिंजरे कि सलाखों को खटखटाता रहता मानो मेरी चेतना से परिचित हो मेरी व्यथा को जानता हो
उसकी संजीदगी बताती थी कि वह दुनिया देख चूका था कि उसे भी बहुत हसने का शौंक रहा था पहले। जाने क्यूँ उस तटस्थ भाव से मेरे बंधन खोलने कि चेष्ठ में जुटा था। जैसे मुझसे और मेरी चेतना शक्ति से परिचित हो...

वो अकेले कभी मिलता; तो झंझोरती उसे
जहाँ जहाँ से वो टूटा था, जोडती उसे.

पर कुछ था कि वो ऊपर सा हो गया था सुख से, दुःख से, ख़ुशी से, दर्द से, मिलन से, विरह से... या कोशिश कर रहा था खुद को एक सपने के लिए तैयार करने कि. कहता कि मै दुनिया जीतना चाहता हूँ पर उसके लिए मुझे खुद को जीतना होगा. पर उसका प्रयत्न नहीं चूकता था....

ज़रा सोचिये, कितना बड़ा कद रहा होगा उसका
मुझसे मिलने वह बुलंदी से उतर कर आता था

वह 'आस्था' था, तो वह उड़ान भर पाने कि 'चाह' था।
वह 'साधना' था, तो वह कभी न शिथिल होने का 'निश्चय' था।
वह 'संघर्ष' था, तोह वह मुक्ति कि श्वास था।
वह अभय था वह भक्ति था वह कथा था वह जय था

शाम होने को थी। सूर्यास्त का समय था। मंदिर से घंटियों कि ध्वनियाँ गूँज रहीं थी। जब सूर्यास्त के समय पंछी जंगलों में अपने नीदों कि ओरे वापिस जा रहें होतें हैं, तोह उसने वो पिंजरा खोल दिया। उसने स्वप्नों के चित्र पर वास्तविकता के रंग बिखेर दिए, क्योंकि पंख होना एक बात है; और उड़ पाना दूसरी। उसने छोटी सी दुनिया में कैद मुझ पंछी को आज सारा आकाश दे दिया.
वह मुक्ति था वह चेतना था अब वह कभी समाप्त होने वाला संघर्ष था

हम अक्सर दूसरों में सहारा दूंदतें हैं 'उसने' मुझे कभी 'सहारा' नहीं दिया। 'उसने' मेरी हथेली खींचकर मुझे पिंजरे से बहार निकला। उसने मेरी हथेली पर एक नाम लिखा वह उसका नहीं था वह नाम मेरा था. 'उसने' मुझे जीवन में पहली बार 'मुझसे' मिलाया। और एहसास दिलाया कि-
'मै सबसे बेहतर हूँ
मै उड़ सकती
हूँ

ऊँचा बहुत ऊँचा....'

लगा कि मुझको उठाकर, कोई फिर खड़ा कर गया
और 'मेरे दर्द' से, 'मुझको' बड़ा कर गया.

अब मै आज़ाद थी। सारा आकाश मेरा । वो पिंजरे टूट चुके थे जो दुनिया ने मेरे लिए बना रखे थे। जो मैंने खुद के लिए बना रखे थे वो पिंजरे सिर्फ लोहे के पिंजरे नहीं थे। वो पिंजरा था हर उस डर का जिससे जीतने कि बात वो करता था हर उस बंदिश का जो मुझे खुश रहने के अधिकार से वंचित करती थी वो पिंजरा था भ्रम का परितोष का भ्रांतियों का
आज
वो टूट गया था। आज 'मै' खुश थीआज 'वो' खुश था और 'आज' को जीने का अधिकार था हमें

जिस पल ब्रह्माण्ड के किसी कण में सच्ची चाह का उदभव होता है, उस पल दरीखे खटखटाए जातें हैं। खिड़कियाँ टूटती हैं। और पिंजरे में किस चिन्मयी शक्ति को मुक्त करने के लिए श्रृष्टि प्रयत्न में जुट जाती है।

हम अपने जीवन में खुद को बहुत से पिंजरों में कैद करते जातें हैं। दायरों और दीवारों में बंद करते जाते हैं। सीझ्तें रहतें हैं उड़ने से, भीगने से, टूटने से... फिर 'कोई' आता है दरवाजों पर दस्तक देता है पिंजरों को तोड़ने कि चेष्ठा करता है. वह इश्वर का बंदा है। वास पाक है। वह सत्य है। उसकी आवाज़ सुन लीजिये। खुद को पिंजरे से आज़ाद कर दीजिये। क्योंकि...

पिंजरों को खुलना होगा। दीवारों को टूटना होगा। मन में जमे हर डर, हर बंदिश को पिघल कर बहना होगा। ह्रदय में जो यह नन्हा पंछी बैठा है उड़ने को तत्पर, उसे उसका नीला आकाश बाहें फैलाये बुला रहा है। उसे उड़ने दो...

अब डर नहीं है। अब आस्था है। मेरे साथ। मेरे पास। और यह आस्था 'उसे' ढून्ढ लेगी जीवन की लकीरों में...

जो चाहो तो कोई सीमा नहीं है
नहीं चाहो तो सीमायें बहुत हैं
आज बतला दो इनमें 'तुम' कहाँ हो?
मेरे हाथों में रेखाएं बहुत हैं....




4 comments:

  1. उसका कद बड़ा नहीं है, ना वो बुलंदी से उतर कर तुमसे मिलने आता हैं,
    वो तो यही है बस तुम्हारे इन लफ्जो में अपनी खुशियाँ पाता हैं |
    कुछ अधुरा है उसकी ज़िन्दगी में, कुछ पल ख़ुशी के वो भी चाहता है |

    जब उड़ता है कोई खुले और निश्छल गगन में उसे कौन सहारा दे सकता है,
    तू पंछी है इस आसमान की, तू जितना ऊँचा चाहे उड़ सकती है |

    तू है बारिश की बूंदों और ठंडी हवा का समन्वय, जो उसको नयी ज़िन्दगी का एहसास देती है | सच कहा है तुने कुछ टुटा सा है वो, कुछ निराशा है उस के मन में लेकिन तू उसे एक नयी आस देती है |

    वो नहीं जानता की तेरी हाथ की लकीरों में उसका पता है या नहीं,
    पर ये एहसास है उसको की तेरे मन के दर्पण में कही एक छाया है उसकी |
    वो नहीं जानता की खुदा ने उसकी किस्मत में क्या लिखा है,
    लेकिन वो ये जानता है की तू खुदा से मांगी हुई उसकी कोई दुआ है |

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  2. superb . I can't never write in hindi.
    Loved the post. It was written very well and something fresh.

    Keep it up.

    take care

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  3. bahut sundar likha hai...

    वो अकेले कभी मिलता; तो झंझोरती उसे।
    जहाँ जहाँ से वो टूटा था, जोडती उसे...

    maza aa gaya

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  4. this is the fifth time.....i,m readin.
    kuch kehte nahi ban raha mujhse.
    bas aise hi likhte rehna,
    ye guzarish hai tumse.

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