तू इन सड़कों पे फिरता-सा, किन्ही रातों का कोहरा है
कुछ धुंधला है, कुछ कोरा है।
कुछ धुंधला है, कुछ कोरा है।
अभी मेरे कानों की बाली में,
तेरे हाथों की गरमाहट
बरस रही है
फ़ैज़ के मिसरे- सी
किन-मिन किन-मिन।
अभी उलझे हुए मेरे बालों में,
तेरी गालों का इक गड्ढा
की जैसे रक़्स करता है।
अभी तेरे लम्स की आहट की गरमाहट से
ये ठंडा चाँद सिहरता है
चौदह दिन पुराना चाँद।
और
गहरे समंदरों की कोलाहल से निकले
तनहा एक जज़ीरे-सी
तेरी आवाज़
कभी जो मेरे लिए
कोई नज़्म पढ़ा यूँ करती है
ऐसी ठंडी सीली रातों में,
तो आफिस की देरी के कारण
मेरी ठंडी हुई रात की कॉफ़ी
फिर से गर्म हो जाती है।
ग़ालिब के मक़ते-से
तेरे लब
अभी भी
मेरे मफ़लर पे बैठें हैं।
मुस्कुरा रहें हैं
किन-मिन किन-मिन।