जग कागज़ कागज़ करता है
मैंने हर्फ़ उछालकर देखें हैं
आकाश के सारे छोरों पर
और गर्मी की बरसातों में
बदल सा उतारा है उनको
बूंदों में पिरोकर पहना है
- इन कानों में -
और सुनाया है तुझको
पानी में बुनती चूड़ी का संगीत
गीली अंगीठी की लकड़ी जिसको
हाथों में पिरोने बैठी है...
जग स्याही स्याही करता है
मैंने हर्फ़ घोलकर सर्दी की
सुबहों में तुझे पिलायें हैं
और धीमे से उनको मलकर
अपने इन झिलमिल हाथों पर
हर रोज़ ही माथे पे तेरे
सूरज की तरह उगायें हैं
मैने लफ्ज़ लिखें हैं आँखों की
पुतली में छिपी ख़ामोशी से
और हथेली पर तेरी उनको
नज़्मों की तरह रख आयीं हूँ
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ReplyDeleteमैने लफ्ज़ लिखें हैं आँखों की
ReplyDeleteपुतली में छिपी ख़ामोशी से
और हथेली पर तेरी उनको
नज़्मों की तरह रख आयीं हूँ.....बहुत खूब गजल जी जैसा नाम है आपका उतनी ही खूबसूरती से शब्दों को भी पिरोती है आप
Very well written...in fact very deep...
ReplyDeleteबेहतरीन कविता।
ReplyDeleteThank you everyone
ReplyDeleteबेहतरीन कविता
ReplyDeleteलफ्ज़ खूबसूरती से शब्दों को भी पिरोती है
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