जग कागज़ कागज़ करता है
मैंने हर्फ़ उछालकर देखें हैं
आकाश के सारे छोरों पर
और गर्मी की बरसातों में
बदल सा उतारा है उनको
बूंदों में पिरोकर पहना है
- इन कानों में -
और सुनाया है तुझको
पानी में बुनती चूड़ी का संगीत
गीली अंगीठी की लकड़ी जिसको
हाथों में पिरोने बैठी है...
जग स्याही स्याही करता है
मैंने हर्फ़ घोलकर सर्दी की
सुबहों में तुझे पिलायें हैं
और धीमे से उनको मलकर
अपने इन झिलमिल हाथों पर
हर रोज़ ही माथे पे तेरे
सूरज की तरह उगायें हैं
मैने लफ्ज़ लिखें हैं आँखों की
पुतली में छिपी ख़ामोशी से
और हथेली पर तेरी उनको
नज़्मों की तरह रख आयीं हूँ
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ReplyDeleteबेवक्त सदी के घूघट में सेहरा उनका ही पाया है
ReplyDeleteयू नमी के सयो में ।।।।।
यू उजला हुआ तन दीपक था ।।।
पर सर्द सिसकता साया है
उस वक्त थी आहट चाहत की
तब वक्त ने ली अंगड़ाई थी ।
जग यू ही मुक्कमुल कहता है।।
बेवक्त सदी के नगमो में।
यू सुर्ख छुपाए बैठे थे वो।।
उजली उजली सी आंखों में।।
हो गया मुकम्मल जग सारा उन पर
वो भी थे एक दीवाने।।
जग अम्बर अम्बर कहता है।।।
सूना है जग और अम्बर भी।
ना चाहत के ना दीवाने की।।
पर दर्द दिलो के चाहत की।।।
मैने लफ्ज़ लिखें हैं आँखों की
ReplyDeleteपुतली में छिपी ख़ामोशी से
और हथेली पर तेरी उनको
नज़्मों की तरह रख आयीं हूँ.....बहुत खूब गजल जी जैसा नाम है आपका उतनी ही खूबसूरती से शब्दों को भी पिरोती है आप
Very well written...in fact very deep...
ReplyDeleteबेहतरीन कविता।
ReplyDeleteThank you everyone
ReplyDeleteबेहतरीन कविता
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