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Friday, October 21, 2016

Build me a home here

Build me a home here. 
I need to break free from everything else 
and let the sun dance on my bare face. 
I want to sip some coffee here and listen to the music of the breeze caressing my hair. 
I want to fill my eyes with sunshine to the brim, and become a firefly. 
I want to be known as who I am, 
not what I seem to be.

Build me a home here.

I want to sing you lullabies
and watch you go to sleep.

3 comments:

  1. ये दाग़ दाग़ उजाला, ये शब-गज़ीदा सहर
    वो इन्तज़ार था जिस का, ये वो सहर तो नहीं

    ये वो सहर तो नहीं जिस की आरज़ू लेकर
    चले थे यार कि मिल जायेगी कहीं न कहीं
    फ़लक के दश्त में तारों की आख़री मंज़िल
    कहीं तो होगा शब-ए-सुस्त मौज् का साहिल
    कहीं तो जा के रुकेगा सफ़िना-ए-ग़म-ए-दिल

    जवाँ लहू की पुर-असरार शाह-राहों से
    चले जो यार तो दामन पे कितने हाथ पड़े
    दयार-ए-हुस्न की बे-सब्र ख़्वाब-गाहों से
    पुकरती रहीं बाहें, बदन बुलाते रहे
    बहुत अज़ीज़ थी लेकिन, रुख़-ए-सहर की लगन
    बहुत क़रीं था हसीनान-ए-नूर का दामन
    सुबुक सुबुक थी तमन्ना, दबी दबी थी थकन

    सुना है हो भी चुका है फ़िराक़-ए-ज़ुल्मत-ए-नूर
    सुना है हो भी चुका है विसाल-ए-मंज़िल-ओ-गाम
    बदल चुका है बहुत अहल-ए-दर्द का दस्तूर
    निशात-ए-वस्ल हलाल-ओ-अज़ाब-ए-हिज्र-ए-हराम
    जिगर की आग, नज़र की उमंग, दिल की जलन
    किसी पे चारा-ए-हिज्र का कुछ असर ही नहीं
    कहाँ से आई निगार-ए-सबा, किधर को गई
    अभी चिराग़-ए-सर-ए-राह को कुछ ख़बर ही नहीं
    अभी गरानि-ए-शब में कमी नहीं आई
    नजात-ए-दीद-ओ-दिल की घड़ी नहीं आई
    चले चलो कि वो मंज़िल अभी नहीं आई.

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