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Sunday, March 16, 2014

Nadan parinda



वो भोर कहाँ, जिसमें ये मन जुड़ जाते थे दो धागे से 
वो शाम कहाँ, जिसमें सूरज उगता था तेरे माथे से 
मैंने इस जग में रब ढूंढा था
तेरे रग रग में रब ढूंढा था 
पर इंसा में कहाँ था रब को मिल जाना।

 रब धरती है ,किसी का अम्बर  है  
ईसा है तो कहीं पैगम्बर है  
राहों में चलते मिल जाए;
बादल सा नभ पे घिर जाए ;

मैंने जगमग जग भी देख  लिया
मैंने अम्बर तक भी देख लिया 
अब थककर राह पे बैठा हूँ; 
रब तू है कहाँ, रब तू है कहाँ 

नहीं अब मै घर नहीं जाऊँगा। 
अब ढूंढ तुझे नहीं पाउंगा।
अब थककर राह पे बैठा हूँ। 
रब तू है कहाँ, रब तू है जहाँ  … 
अब ढूंढ मुझे; अपना ले बना 
मैं एक नादान परिंदा भटका सा 
नादान परिंदा भटका सा। 

2 comments:

  1. मंजिलों पर पहुँचना एक तप है
    इस तप में जलना पड़ता है, पिघलना पड़ता है
    लेकिन वो ईश्वर सच्ची तपस्या का फल देगा

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