सूरज ये ढलता है,
हाँ, उस समय मेरा,
मन क्यों मचलता है...?
खग सारे अपने,
घर लौटते हैं जब,
घर लौटते हैं जब,
पग मेरा घर से,
बाहर क्यों निकलता है...?
समंदर की लहरें,
जब शांत होती हैं,
जब शांत होती हैं,
मन का ये सागर,
यूँ हलचल क्यों करता है...?
जब जब मेरी ये,
उम्मीद टूटे है,
क्यों आश का एक,
दिया दिल में जलता है॥?
जब दिल सभी पर,
यकीन करने लगता है,
तब क्यूँ मुझे कोई,
अपना सा छलता है..?
जब जब मेरा ख़ुद पे,
अपना सा छलता है..?
जब जब मेरा ख़ुद पे,
विशवास टूटा है,
क्यूँ तेरे वास्ते दिल में,
क्यूँ तेरे वास्ते दिल में,
विशवास पलता है॥?
क्यूँ तेरे वास्ते दिल में,
विशवास पलता है...?
जब शाम होती है,
सूरज ये ढलता है,
हाँ, उस समय मेरा,
हाँ, उस समय मेरा,
मन क्यूँ मचलता है..?
awesome poetry.. specially i like the the irony base of the poem..
ReplyDeletecant expect such a wonderfuland matured thought frm a kid like.. :)
keep it up keep writing.. :)
Bahut hee anuthi anubhuti hai yeh, jab lagta hai sab kuch theek hai tabhi sab kuch bigadney lagta hai , lekin sab theek ho jaye to phir koi parwah nahi.
ReplyDeletethanks for the comment Vandana. i love it when u comment on these previous posts of mine... for when i re read them, they generate back thousands of lost emotions...
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